‘इंडिया हाउस’ भौतिक रूप से भले अकाल कवलित हो गया हो, कितु स्वाधीनता संघर्ष के विश्व इतिहास में उसकी कीर्ति-पताका आज भी फहरा रही है और आगे भी फहराती रहेगी।
श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1905 में ही हॉलबॉर्न के टाउनहॉल में संपन्न यूनाइटेड कांग्रेस ऑफ़ डेमोक्रैट्स के सम्मेलन में इंडिया होम रूल सोसाइटी के प्रतिनिधि के तौर पर भाग लिया। श्याम जी के भारत-सम्बंधी प्रस्ताव का सम्मेलन के सभी प्रतिभागियों ने अतिशय उत्साह के साथ स्वागत किया।
1907 तक आते-आते श्यामजी कृष्ण वर्मा के क्रियाकलापों से ब्रिटिश सरकार ख़ासी क्षुब्ध हो उठी। अधिकांश ब्रिटिश प्रेस उनके ख़िलाफ़ हो गया। कई अख़बारों ने उन ब्रिटिश उदारवादियों की भी निंदा की, जो श्यामजी का समर्थन कर रहे थे। ब्रिटिश गुप्त पुलिस उनकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखने लगी। इसके पहले कि उनकी गिरफ्ऱतारी हो, श्यामजी ने अपना कार्यस्थल बदलने का निर्णय लिया। इंडिया हाउस की पूरी जिम्मेदारी विनायक दामोदर सावरकर को सौंपकर वे गुप्त रूप से इंग्लैंड से निकलकर पेरिस चले गए। यह 1907 की शुरुआत थी। ‘द इंडियन सोसिऑलॅजिस्ट’ के मई, 1907 तक के अंकों का संपादन-प्रकाशन श्यामजी के अभिन्न अंग्रेज मित्र गाइ ए- ऑल्ड्रेड (Guy A. Aldred)लंदन से करते रहे। इसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा। ऑल्ड्रेड पहले ब्रिटिश नागरिक थे, जो भारतीय स्वतंत्रता के लक्ष्य के लिए जेल गए। जून, 1907 से ‘द इंडियन सोसिऑलॅजिस्ट’ पेरिस से निकलने लगा, यद्यपि उसका पता सितंबर, 1907 के अंक से बदला गया।
ब्रिटिश सरकार ने फ्रांस से श्यामजी के प्रत्यर्पण की कोशिश की, कितु कई फ्रांसीसी राजनीतिज्ञों से श्यामजी के अच्छे संबंध के कारण असफल रही। पेरिस में रहकर श्यामजी ने भारत की स्वतंत्रता के लिए रूस सहित कई यूरोपीय देशों का समर्थन जुटाया। अपुष्ट स्रोतों के अनुसार उन्होंने सितंबर, 1909 में लाला हरदयाल को पेरिस बुलाकर वहाँ से उनका अंग्रेजी पत्र ‘वंदे मातरम्’ के नाम से निकलवाने की कोशिश की, कितु संभव नहीं हो सका। पेरिस में रहते हुए ही भीकाजी कामा के साथ उन्होंने 1910 में सावरकर के गिरफ्ऱतार होकर भारत ले जाए जाते समय फ्रांस के मार्सेई बंदरगाह से उनके समुद्र में कूदने पर उन्हें फ्रांस की धरती पर भगा ले जाने की योजना बनाई। कितु सहायकों के समय से न पहुँचने के कारण सावरकर दुबारा पकड़ लिए गए। यह मामला फ्रांस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अदालत, हेग में ले जाए जाने के पीछे भी मुख्यतः श्यामजी कृष्ण वर्मा का प्रयास काम कर रहा था यद्यपि वहाँ सफलता नहीं मिली।
1914 के आरंभिक महीनों तक श्यामजी पेरिस में बने रहे और वहीं से द इंडियन सोसिऑलॅजिस्ट नियमित निकालते रहे। 8 अप्रैल, 1914 को जर्मनी से अवश्यंभावी युद्ध की स्थिति के मद्देनजर इंग्लैंड और फ्रांस के बीच मैत्री और सहयोग संधि (Etente Cordiale) संपन्न हुई। उसे पुष्ट करने के लिए किग ज्यॉर्ज पंचम के पेरिस आने का कार्यक्रम बना। ऐसे में श्यामजी की फ्रांस में उपस्थिति फ्रांस के लिए जबरदस्त धर्मसंकट का बायस बन गई। लिहाजा, श्याम जी पेरिस छोड़कर तटस्थ देश स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर चले गए।
जेनेवा निवास के दौरान युद्धकालीन स्थितियों में स्विस सरकार के आग्रह पर उन्होंने द इंडियन सोसिऑलॅजिस्ट का प्रकाशन बंद कर दिया। आख़िर 1920 में उसका प्रकाशन पुनः शुरू हुआ और दो साल चला। कितु 1922 में श्यामजी का स्वास्थ्य ख़राब होने से हमेशा के लिए बंद हो गया।
जेनेवा में रहते हुए श्यामजी ने राष्ट्रसंघ (League of Nations) को 10,000 फ्रैंक के योगदान से अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के नाम पर एक व्याख्याता पद के सृजन का प्रस्ताव भेजा, जो राष्ट्रीय स्वाधीनता अर्जित करने और स्वतंत्रता, न्याय तथा राजनीतिक शरणार्थियों को शरण देने के अधिकार के सिद्धांतों के अनुरूप उसे क़ायम रखने के सर्वाेत्तम उपायों पर विमर्श करे। ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक दबाव में राष्ट्रसंघ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। स्विटजरलैंड की सरकार ने भी इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। यही हश्र ऐसे ही उदात्त आदर्शों के लिए एक अन्य व्याख्याता पद के सृजन के लिए आर्थिक योगदान के श्यामजी के प्रस्ताव का हुआ, जो उन्होंने जेनेवा प्रेस असोसिएशन द्वारा उनके सम्मान में दिए गए प्रीतिभोज (banquet) के समय घोषित किया था। 250 पत्रकारों और स्विटजरलैंड तथा राष्ट्रसंघ के अध्यक्षों सहित अनेक गण्यमान व्यक्ति उस प्रीतिभोज में मौजूद थे। वहाँ तो इस प्रस्ताव का करतल ध्वनि से स्वागत हुआ। कितु इसे अमली जामा पहनाने के लिए किए गए प्रयास का पहले वाला ही हश्र हुआ। यह है दुनिया का दस्तूर! हताश होकर श्यामजी ने इस संबंध में हुए सारे पत्रचार को (छह साल बाद) दुबारा शुरू हुए ‘द इंडियन सोसिऑलॅजिस्ट’ के प्रथम अंक (दिसंबर, 2020) में प्रकाशित कर दिया (कि दुनिया अपना असली चेहरा देख सके)। उनके द्वारा स्थापित छात्रवृत्तियाँ और फ़ेलोशिप (एक हरबर्ट स्पेंसर के नाम तथा कई अन्य) ही मूर्तरूप ले सकीं।
लंबे समय तक अस्वस्थ रहने के बाद 30 मार्च, 1930 को जेनेवा में श्याम जी अपनी जीवनसंगिनी भानुमती को अकेली छोड़कर (उनकी किसी संतान का पता नहीं चलता) अनंत की यात्र पर निकल पड़े। ब्रिटिश सरकार ने भारत में उनकी मृत्यु की ख़बर दबाने की कोशिश की, कितु सफल नहीं रही।
उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों में लाहौर जेल में बंद भगत सिंह और उनके साथी भी सम्मिलित थे।
श्यामजी ने अपनी और अपनी पत्नी की मृत्यु के उपरांत की पूरी व्यवस्था अग्रिम भुगतान के साथ जेनेवा की स्थानीय सरकार और संत ज्यॉर्ज क़ब्रिस्तान के माध्यम से कर रखी थी। उनके दाह संस्कार के बाद उनकी राख़ को 100 वर्ष तक सुरक्षित रखा जाना था और उनके अस्थिकलश को तभी भारत भेजा जाना था, जब वह आजाद हो जाए। कितु 1947 में आजाद हुआ भारत ‘आतंकी’ मार्ग के अनुयायी इस स्वतंत्रता सेनानी को भूल चुका था। बाद में श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में पेरिस में रहने वाले भारतीय विद्वान पृथ्वीनाथ मुखर्जी की पहल पर वे इसके लिए तैयार हो गई थीं। कितु जमीन पर इसकी पहल और पैरवी करने वाला कोई नहीं था। लिहाजा कुछ हुआ-हवाया नहीं। अंततः 75 साल बाद श्यामजी कृष्ण वर्मा और भानुमती के अस्थिकलश 2005 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपे गए। ये अस्थिकलश कच्छ में स्थित श्यामजी के पैतृक गाँव मंदावी पहुँचे और वहाँ ‘क्रांतितीर्थ’ के नाम से उनका स्मारक बना। बाद में कच्छ भूखंड में एक क़स्बा विकसित हुआ, जिसका नाम कृष्ण वर्मा नगर है।
इतिहास की यात्र स्वायत्त और निरंकुश है। कितु कभी-कभी किसी पैटर्न की झलक दे जाती है। एक तथाकथित ‘आतंकी’ के स्मारक का नाम ‘क्रांतितीर्थ’ होना उनमें से एक हो सकता है।
Pages 24- 27
( Extracted with due permission from author, publisher)
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